August 21, 2017

आंबेडकरवादी बने, मार्क्सवादी नहीं

Translated By Vishal Sonara  || 21 Aug 2017 



जीवन अनुभवो का निचोड है, वो अनुभव जो आप अपने जीवन के हर एक पडाव मे रुबरु हो रहे है. आप अपनी जिंदगी को कैसे देखते है?? 

जीवन क्या है? क्या ये वो जीवन है जो आप को और आप के समाज के लिए जरुरी है?? 

मैं एक अलग तरीके से सोचता हूं क्योंकि यह आप पर निर्भर है कि आप अपने आप को कैसा बनाते हैं.  अगर मैं कहता हूं "यह आप पर निर्भर है" का मतलब यह नहीं है कि मैं संपुर्ण जीवन जी रहा हु. 

मे उपर कही गई फिलोसोफी मे मानता हु. हम पर ऐसे आचार और विचार थोपे जा रहे है जो हमारे जीवन मे इन दिनों प्रचलित नही है. हमें इस से बाहर आना होगा और इन सब मे से हम को सीमित करने से बचना होगा. 

हमारे पास भी नेतृत्व की क्षमता है, हम भी लोगो को प्रेरीत कर सकते है और नये सिद्धांत को बना सकते है. अम्बेडकरवादी आंदोलन के अनुयायी होने के नाते, हमे इन बातो पर बारबार सोचना होगा.  

अनैतिकता, असभ्यता, गड़बड़ी, उत्पीड़न, भेदभाव ये सब सिर्फ पढने योग्य शब्द नही है. प्रत्येक शब्द का एक इतिहास है जो कि सभ्यता की शुरुआत से ही मानवता को सताता आ रहा है, जो हमें अत्याचार के खिलाफ लड़ने के लिए एक मंच बनाने पर मजबुर करता है. 

हालांकि कार्ल मार्क्स ने इसे अच्छी तरह से परिभाषित किया है परंतु हमें मार्क्स के सिद्धांत को फिर से जांचना पडेगा क्योंकि मार्क्स के समय संजोगो से हमारी समस्या काफी अलग है. 

अगर दोनो पक्ष दूषीत है तो सिर्फ परस्पर दोषारोपण ही समस्या का समाधान नही है, आपको अपने स्थान पर सही रहना बेहद आवश्यक है , जिससे हम एक आंदोलन खडा कर सके अन्यथा हमारे जीवन के अंत में हम खुद को भी माफ ना कर पायेगे और अपने आप को अभागा और दोषी पाएगे.
यह एक जोखिमी अनुभव बन जायेगा. 

कार्ल मार्क्स का सिद्धांत न तो सुविधाजनक है और न ही भारतीयों की समस्याओं का प्रभावी समाधान प्रदान करता है.

यह "जाति" की समस्या है जो युगो से हमारे भारतीय समाज को जाती की बात पर कट्टर बनाये हुए है. भारतीय संविधान के जनक डॉ भीमराव अम्बेडकर ने "बुद्ध या कार्ल मार्क्स" नामक किताब में बुद्ध और कार्ल मार्क्स के बीच तुलना करके भारत में मार्क्सवाद की उपयुक्तता पर लिखा है. 

डॉ भीमराव अम्बेडकर ने कहा है की,  "समाज, अर्थशास्त्र और राजनीति पर कार्ल मार्क्स के सिद्धांत जो सामुहिक रुप से मार्क्सवाद से जाने जाते है, वो कहता हैं कि मानव समाज वर्ग संघर्ष के माध्यम से प्रगति करती है : एक ऐसा पूंजीपती और श्रमीक वर्ग का संघर्ष जीसमे एक उत्पादन को नियंत्रित करता है और दुसरा उत्पादन के लिए श्रम प्रदान करता है.  मार्क्सने पूंजीवाद को "पूंजीपति वर्ग की तानाशाही" कहा, जो अपने लाभ के लिए धनी वर्गों द्वारा चलाया जा रहा है; और उन्होंने भविष्यवाणी की थी कि, पिछली सामाजिक आर्थिक व्यवस्था की तरह, पूंजीवाद ने आंतरिक तनाव उत्पन्न किया है, जिसके कारण एक नई सोच उत्पन्न होगी जो इस पूंजीवाद का सर्वनाश करेगी और उस के स्थान पर नई व्यवस्था लागु होगी और वो है साम्यवाद."

क्लास संघर्ष एक अलग ही मुद्दा है, भारत में जाति के आधार पर लोगों का शोषण किया गया है और किया जाता है और कम्युनिस्ट लोग जाति के सवाल पर चुप्पी साध लेते हैं क्योंकि उनके पास इस समस्या का कोई हल ही नहीं है लेकिन उन्हें पता है कि ऐसे सवाल उठाकर राजनीति में कैसे लाभ उठाया जा सकता है. यदि हम जाति की समस्या का समाधान खोजना चाह रहा है तो वो समाधान हमे डॉ अम्बेडकर द्वारा लिखित पुस्तक "THE ANNIHILATION OF CASTE" मे ही मील सकता है. डॉ अंबेडकर भारत की ईस सामाजिक बीमारियों के यथार्थ डाक्टर हैं, जिस बीमारियों के लिए मार्क्सवाद के पास कोई समाधान नहीं है.

मेरा मानना है की हमे डॉ अंबेडकर का अनुसरण करना चाहीये, मार्कसवादी बनने की कोशिश करने के बजाय आंबेडकरवादी बनना चाहीये, क्योंकी मार्क्सवाद को भारतीय समाज की बुनियादी समस्या "जातिगत भेदभाव" के बारे मे कोइ जानकारी ही नही है.

Note: Translation of Original Article by Ashish Kapoor "Be an Ambedkarite, Not a Marxist".
I have tried my best to translate it in Hindi but there may be some differences so For the better understanding on this topic original article by the author in English is final. 


No comments:

Post a Comment